पिरामिड स्पिरिचुअल सोसाइटीज़ मूवमेंट
के प्रतीक चिह्न की विशेषताएँ
इस सृष्टि का हर एक प्राणी ... शक्ति, चैतन्य, प्रज्ञा (Energy, Consciousness, Wisdom) का समग्र स्वरूप ही है। पिरामिड स्पिरिचुअल सोसाइटीसज़् मूवमेंट ... लोगो के प्रतीक की विशेषताएं:
यह त्रिभुज पूर्णात्मा का प्रतीक है। यहाँ नीचे प्रुथ्वी पर रहने वाली जीवात्मा को पूर्णात्मा से पूरा ज्ञान मिलना ही आध्यात्मिक शास्त्र का प्रधान उद्देश्य है। यह पूर्णात्मा ‘Three in one’ जैसा है। अर्थात् यह पुर्णात्मा " करने वाला ", " समझने वाला ", और " सोचनेवाला " जैसि तीन तत्वों में रहती है। पूर्णात्मा से ‘करने वाला’ का पात्र पृथ्वी पर ‘जीवात्मा’ के रूप में आता है। ध्यान में हम अपनी पूर्णात्मा को " हमेशा चलनेवाले त्रिभुज के रूप में... पिरमिड की तरह एक कोण में देखेंगे।
पिरामिड स्पिरिचुअल सोसाइटीज़् मूवमेंट के लोगो में ध्यान करने वाला व्यक्ति लिखा गया। सोसाइटी के प्रधान उद्देश्य, दिव्यज्ञानप्रकाश का रास्ता ध्यान से ही प्राप्त हो जाएगा। (साध्य)
इस तसवीर के ध्यानी भूभौतिक स्थान के ऊपर रहा है। क्योंकि ध्यान में हम पृथ्वी की आकर्षित शक्ति को पार कर सकने वाले शरीर धारण करते हैं।... स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर अलग होकर आसानी से तथा आजादी से यात्रा करते हैं। सूक्ष्मशरीरयान एक महान लक्ष्य है। हमें इसको जरूर प्राप्त करना हैं।
ध्यान का मतलब अंतरेंद्रियों को उत्तेजित करना ही है। हमारे अंतरेंद्रियों का संपूर्ण प्रतीक ही है, यह त्रिनेत्र/ दिव्यचक्षु।
ध्यान में धीरे - धीरे दिव्यचक्षु उत्तेजित होकर ऊँची स्थाई में उसके आकाशिक रेकॉर्ड को स्पष्ट रूप से देख सकता है। अर्थात परिपूर्ण दार्शनिकता; दिव्यदृष्टि होगी। ‘ऋषि’ का मतलब है " द्रष्टा। " अर्थात दिव्यदृष्टि से महान अतीत स्थिति को देख सकता है। और इस सृष्टि के दूसरी फ्रीक्वेन्सी के अनेक विश्वों को देख सकता है। पृथ्वी पर होने वाली सब काम उनके कारण भी समझेंगे। (देख सकेंगे)
इस दिव्यचक्षु को प्राप्त करना ही विकसित आत्माएँ करने वाली विशेष लक्ष्य साधना है।
सृष्टि के हरेक प्राणी ‘शक्ति’, ‘चैतन्य’, ‘प्रज्ञा’ आदि का समुदाय है। अतः हमें क्रमतः अपनी शक्ति तथा ज्ञान को बढकर, उससे उसका आधार (उस पर निर्भर) चैतन्य तथा आत्मानंद को पाना चाहिए।
त्रिभुज के बीच के चिह्न है; स्वाध्यायल बैठा हुआ ध्यानी। इसकी मदद से उपर हुआ ‘ज्योति’ को अर्थात् ‘पूर्णात्मा’ के पास पहूँचना है; अर्थात आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करना है।
" सब जगह प्राणशक्ति भरी हुई है। कुछ प्राणशक्तिमय ही है। " - यही सृष्टि का प्रधान सच है। सिर्फ आनापानसति ध्यान - साधना से ही सारे विश्व में भरी हुई विश्वमय प्राणशक्ति हमारे शरीर के अंदर प्रवेश होकर नाडीमंडल की शुध्दि करती है।
आनापानसति ध्यान द्वारा ज्यादा शक्ति, एकग्रता, तथा ज्ञान को प्राप्त करके, दुनिया के आध्यात्मिक ग्रंथों को आसानी से अध्ययन कर सकते है और प्रधान आध्यात्मिक सत्य को आसानी से समझ सकते हैं।
हमेशा आनापानसति के साधन करके जब हम आत्मज्ञानी बन जायेंगे, तब उसके अनुकूल... हम और कुछ ज्ञान के साथ - ‘पूर्ण आत्मस्थाई चैतन्य’ के साथ दैनिक भौतिक जीवन को हर पल खुशी से (ब्रह्मानंद) जी सकेंगे।
हम सब शक्ति, चैतन्य, प्रज्ञा के अंश ही हैं। इस पूरे सृष्टि भी इन्हीं से भरी हुई है। इन तीनों बढ कर और कुछ भी नही है। ये तीनों आपस में बराबर के तौल पर है।
हम जितना शक्तिवान होंगे, उतना चैतन्यमय बनेंगे। तुरन्त आत्मज्ञान भी पायेंगे। अधिक ज्ञान से हम और भी चैतन्य होकर, और कुछ ज्यादा शक्ति पायेंगे।
जन्म - कर्म परंपरा का परमार्थ (मतलब)... हमारी शक्ति, चेतना, ज्ञान आदि को बढाना ही है।
"जिसका रक्षक खुद वही है। " - यही परम सत्य है। " स्व इच्छा " से जिसकी वास्तविकता को वे खुद निर्णय किये थे। प्रस्तुत में भी ‘स्व इच्छा’ से ही सिध्द कर रहे हैं। भविष्य में भी ऐसी ही होगा।
ध्यान आंध्रप्रदेश 2012, जनवरी page no 53
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